Psaumes 58

58

हे मनुष्यों, क्या तुम सचमुच धर्म की बात बोलते हो?

2

नहीं, तुम मन ही मन में कुटिल काम करते हो;

3

दुष्ट लोग जन्मते ही पराए हो जाते हैं,

4

उनमें सर्प का सा विष है;

5

और सपेरा कितनी ही निपुणता से क्यों न मंत्र पढ़े,

6

हे परमेश्‍वर, उनके मुँह में से दाँतों को तोड़ दे;

7

वे घुलकर बहते हुए पानी के समान हो जाएँ;

8

वे घोंघे के समान हो जाएँ जो घुलकर नाश हो जाता है,

9

इससे पहले कि तुम्हारी हाँड़ियों में काँटों की आँच लगे,

10

परमेश्‍वर का ऐसा पलटा देखकर आनन्दित होगा;

11

तब मनुष्य कहने लगेंगे, निश्चय धर्मी के लिये फल है;